पुस्तकें हैं ज़रूरी

पुस्तकें हैं ज़रूरी मनुष्य के बौद्धिक और सांस्कृतिक विकास में पुस्तकों की भूमिका अनादि काल से महत्वपूर्ण रही है। चाहे वह ताड़पत्रों पर लिखे प्राचीन ग्रंथ हों, हाथ से लिखी गई पांडुलिपियाँ हों, या आधुनिक मुद्रित पुस्तकें—हर युग में पुस्तकों ने ज्ञान और विचारों को आगे बढ़ाने का कार्य किया है। वर्तमान डिजिटल युग में जब सूचनाएँ एक क्लिक में उपलब्ध हो जाती हैं, तब यह प्रश्न उठता है कि क्या पारंपरिक पुस्तकें अपनी प्रासंगिकता खो रही हैं? उत्तर स्पष्ट है—नहीं। बल्कि, डिजिटल समाज में भी पुस्तकों की भूमिका और अधिक महत्वपूर्ण हो गई है। डिजिटल क्रांति ने सूचना तक पहुँच को आसान बना दिया है, लेकिन इंटरनेट पर उपलब्ध अधिकांश सामग्री सतही और तात्कालिक होती है। पुस्तकों की विशेषता यह है कि वे किसी भी विषय पर गहन अध्ययन, चिंतन और संपादन के बाद प्रकाशित होती हैं, जिससे वे अधिक प्रामाणिक और विश्वसनीय होती हैं। प्राचीन ग्रंथों से लेकर आधुनिक साहित्य तक, पुस्तकों ने सदैव समाज को दिशा देने का कार्य किया है। डिजिटल युग में लोगों की पढ़ने और ध्यान केंद्रित करने की क्षमता प्रभावित हुई है। सोशल मीडिया और ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म त्वरित जानकारी तो प्रदान करते हैं, लेकिन वे गहन अध्ययन और विश्लेषण की प्रवृत्ति को कमजोर करते हैं। पुस्तकें हमें विषय की गहराई में जाने, तर्क-वितर्क करने और विस्तृत दृष्टिकोण विकसित करने का अवसर देती हैं। वे विचारशीलता और आत्ममंथन को प्रोत्साहित करती हैं, जो किसी भी समाज की बौद्धिक प्रगति के लिए आवश्यक है। पुस्तकें केवल सूचना का स्रोत नहीं, बल्कि संस्कृति और परंपरा की संवाहक भी हैं। वे हमारी सभ्यता, इतिहास, दर्शन, कला और साहित्य को संजोकर रखती हैं। भारतीय ग्रंथ रामायण, महाभारत, वेद और उपनिषद केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं हैं, बल्कि वे भारतीय संस्कृति और मूल्यों का भी आधार हैं। इसी प्रकार, विभिन्न भाषाओं में लिखे गए साहित्यिक ग्रंथ भी समाज के विकास और उसकी सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने में सहायक होते हैं। डिजिटल माध्यमों पर उपलब्ध जानकारी में अक्सर सत्यता और प्रमाणिकता की कमी होती है। किसी भी व्यक्ति द्वारा इंटरनेट पर कोई भी सामग्री प्रकाशित की जा सकती है, जिससे भ्रामक और अपुष्ट जानकारी के प्रसार की संभावना बढ़ जाती है। इसके विपरीत, पुस्तकें एक व्यवस्थित संपादन और शोध प्रक्रिया से गुजरती हैं, जिससे उनकी विश्वसनीयता अधिक होती है। इसके अलावा, डिजिटल दस्तावेज़ तकनीकी समस्याओं, साइबर हमलों या डेटा लॉस के कारण नष्ट हो सकते हैं, जबकि मुद्रित पुस्तकें दशकों और यहाँ तक कि सदियों तक सुरक्षित रह सकती हैं। आज भी हजारों साल पुराने ग्रंथ संग्रहालयों और पुस्तकालयों में संरक्षित हैं, जो यह सिद्ध करते हैं कि पुस्तकों का महत्व समय से परे है। डिजिटल स्क्रीन पर अधिक समय बिताने से आँखों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। ब्लू लाइट के कारण आँखों की थकान, सिरदर्द और ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई जैसी समस्याएँ बढ़ रही हैं। दूसरी ओर, कागज पर पढ़ना आँखों के लिए अधिक आरामदायक और प्राकृतिक होता है। साथ ही, पुस्तकों के साथ बिताया गया समय मानसिक शांति और आत्मचिंतन को बढ़ावा देता है। हालाँकि डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म ने पढ़ाई को आसान और अधिक सुलभ बना दिया है, लेकिन वे मुद्रित पुस्तकों का स्थान पूरी तरह नहीं ले सकते। डिजिटल किताबें यात्रा के दौरान पढ़ने, तत्काल संदर्भ प्राप्त करने और विविधता तक पहुँचने के लिए उपयोगी हो सकती हैं, लेकिन गहन अध्ययन, शोध और आत्मसात करने के लिए मुद्रित पुस्तकें अधिक प्रभावी होती हैं। वर्तमान डिजिटल समाज में पुस्तकें केवल जानकारी प्रदान करने का साधन नहीं, बल्कि गहन अध्ययन, विचारशीलता, संस्कृति संरक्षण और आत्ममंथन का महत्वपूर्ण माध्यम हैं। वे हमें केवल सूचना नहीं, बल्कि ज्ञान और विवेक प्रदान करती हैं। डिजिटल साधनों की सुविधा को अपनाते हुए भी हमें पुस्तकों की परंपरा को जीवंत रखना चाहिए, क्योंकि यही हमारी बौद्धिक और सांस्कृतिक विरासत की वास्तविक धरोहर हैं। इसलिए, चाहे समय कितना भी बदल जाए, पुस्तकें सदैव ज़रूरी रहेंगी।

Dr. Divya Pandey

5/8/20241 min read